लखनऊ, 22 जुलाई। भारत में वैचारिक और सांगठनिक ग़लतियों के कारण टूट और बिखराव के शिकार कम्युनिस्ट आन्दोलन को आज नये सिरे से खड़ा करने की ज़रूरत है। आज देश की सत्ता पर काबिज फासीवाद एक धुर-प्रतिक्रियावादी सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन है जिसे कैडर-आधारित सांगठनिक तंत्र के जरिए ज़मीनी स्तर से खड़ा किया गया है। मेहनतकशों और प्रगतिशील मध्यवर्ग के बीच व्यापक आधार वाला सामाजिक-राजनीतिक आन्दोलन खड़ा करके ही इसे परास्त किया जा सकता है। मार्क्सवादी चिन्तक और ऐक्टिविस्ट शशि प्रकाश ने आज यहाँ ‘भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन: इतिहास, समस्याएँ और सम्भावनाएँ’ विषय पर अपने व्याख्यान में ये बाते कहीं।
‘अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति’ और ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ की ओर से जयशंकर प्रसाद सभागार में आयोजित कार्यक्रम में अच्छी संख्या में बुद्धिजीवी, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता और छात्र उपस्थित थे और व्याख्यान में प्रस्तुत बातों पर सवाल-जवाब का भी लम्बा दौर चला। कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने की।
शशि प्रकाश ने कहा कि भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन ने लगभग एक शताब्दी की यात्रा के दौरान गौरवशाली संघर्षों और शौर्यपूर्ण बलिदानों के अनेक कीर्तिस्तम्भ स्थापित किये लेकिन एक अहम सवाल यह है कि भारतीय पूँजीपति वर्ग और उसकी प्रतिनिधि कांग्रेस के हाथों से राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व अपने हाथों में क्यों नहीं ले सका। पिछले ढाई दशकों के दौरान नयी आर्थिक नीतियों के कारण जनता में भारी असन्तोष पैदा हुआ है और फासिस्ट शक्तियाँ निरन्तर मज़बूत होते हुए सत्ता में पहुँच गयी हैं। फिर भी कम्युनिस्ट धारा कोई प्रभावी प्रतिरोध खड़ा करने में अक्षम है।
उन्होंने कहा कि पिछले तीन-चार दशकों में दुनिया व्यापक परिवर्तनों से गुज़री है। विश्व पूँजीवाद की संरचना, कार्यप्रणाली और उत्पादन-प्रक्रिया में तथा भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक देशों की सामाजिक-आर्थिक संरचना में व्यापक बदलाव आये हैं। उद्योग और कृषि, शहरों और गाँवों सभी जगह उत्पादन व शोषण, वर्गों की संरचना और सामाजिक समीकरण पहले जैसे नहीं रहे हैं। इन बदलावों को समझने और मज़दूर आन्दोलन तथा सामाजिक क्रान्ति की नई रणनीति और रणकौशल विकसित करने में कम्युनिस्ट आन्दोलन अब तक विफल रहा है।
मार्क्सवादी विचारधारा पर हो रहे हमलों की चर्चा करते हुए शशि प्रकाश ने कहा कि इसके बुनियादी सिद्धान्तों को कोई भी ग़लत नहीं ठहरा सका है। लेकिन इन्हें समझने और देशकाल के अनुसार लागू करने में ग़लतियाँ हुई हैं। भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन के पुनरुत्थान के लिए ज़रूरी है कि विभिन्न माध्यमों से बड़े पैमाने पर प्रगतिशील विचारों और संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया जाये, अतीत की ग़लतियों के सार-संकलन और नई परिस्थितियों के विश्लेषण से आगे का रास्ता विकसित किया जाये। युवाओं को कम्युनिस्ट आन्दोलन से जोड़ने पर विशेष ज़ोर देना होगा जो नये विचारों को लेकर व्यापक मेहनकश अवाम के बीच में जायेंगे।
उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिक फासीवाद की फौरी चुनौती के मुकाबले के लिए भी ज़रूरी है कि मेहनतकशों और मध्यवर्ग के प्रगतिशील तबकों के बीच निरन्तर वैचारिक तथा सांस्कृतिक काम किया जाये और उन्हें बुनियादी मुद्दों पर संगठित किया जाये। इसके साथ ही पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध लम्बी लड़ाई के लिए उन्हें शिक्षित और संगठित करने के उद्देश्य से हज़ारों नौजवानों को मज़दूरों और ग़रीबों की बस्तियों में जीवन बिताने के लिए तैयार करना होगा।
भारतीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के इतिहास की विस्तार से चर्चा करते हुए शशि प्रकाश ने कहा कि इसकी सबसे बड़ी कमी विचारधारात्मक कमज़ोरी रही है । इसी मुख्य कारण के चलते यहाँ के कम्युनिस्ट मार्क्सवादी सिद्धान्त को भारत की ठोस परिस्थितियों में रचनात्मक ढंग से लागू करने में चूकते रहे, और अक्सर अन्तरराष्ट्रीय नेतृत्व और बड़ी एवं अनुभवी बिरादर पार्टियों पर वैचारिक रूप से निर्भर रहे। कम्युनिस्ट नेतृत्व ने औपनिवेशिक भारत के उत्पादन-सम्बन्धों और जाति व्यवस्था, स्त्री प्रश्न और राष्ट्रीयताओं का प्रश्न सहित ऊपरी संरचना के सभी पहलुओं का ठोस अध्ययन करके भारतीय क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल के निर्धारण की स्वतन्त्र कोशिश नहीं की। वह संयुक्त मोर्चा, मज़दूर आन्दोलन और अन्य प्रश्नों पर बार-बार कभी दक्षिणपंथ की ओर झुकता रहा तो कभी अतिवाम के भटकाव का शिकार होता रहा। अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन में होने वाले भटकाव और भारत-विषयक ग़लत या असन्तुलित मूल्यांकन भी यहाँ के आन्दोलन को प्रभावित करते रहे।
उन्होंने कहा कि नक्सलबाड़ी का जन-उभार भारत में क्रान्तिकारी वामपन्थ की नयी शुरुआत और संशोधनवादी राजनीति से निर्णायक विच्छेद की एक प्रतीक घटना थी। लेकिन ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद के भटकाव और भारतीय सामाजिक-आर्थिक संरचना एवं राज्यसत्ता की ग़लत समझ और क्रान्ति की ग़लत रणनीति एवं रणकौशल के परिणामस्वरूप यह धारा आगे बढ़ने के बजाय गतिरोध और विघटन का शिकार हो गयी। 1969 में जिस भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मा-ले) की घोषणा हुई, वह कई ग्रुपों और संगठनों में बँटी हुई, एकता और फूट के अनवरत सिलसिले से गुजरती रही है। इस त्रासद स्थिति के कारणों की पड़ताल ज़रूरी है।
कार्यक्रम में प्रो. सुरिन्दर कुमार, डा. रमेश दीक्षित, कात्यायनी, शकील सिद्दीकी, गिरीशचंद्र श्रीवास्तव, कौशल किशोर, अजय सिंह, डी.के. यादव, असग़र मेहदी, भगवानस्वरूप कटियार, आर.के. सिन्हा, उषा राय, सुशीला पुरी, रफ़त फ़ातिमा, मेवालाल, सी.एल. गुप्ता, आशीष सिंह, ए.एन. पटेल, संजय श्रीवास्तव, राम बाबू, अखिल कुमार, विमला, मित्रसेन, अमित पाठक, सत्येन्द्र सार्थक, आशाराम, सिराज अहमद आदि के अलावा काफ़ी संख्या में युवा सामाजिक कार्यकर्ता, शोधार्थी और छात्र उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन सत्यम ने किया।
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