लखनऊ से ताल्लुक़ रखने वाले महेश चन्द्र देवा पेशे से कलाकार हैं और लखनऊ में ही एक थिएटर वर्कशॉप चलाते हैं. उन्होंने कई फ़िल्मों में करैक्टर रोल्स किये हैं और लगातार अलग-अलग क़िस्म के प्रोजेक्ट्स पर काम कर रहे हैं. अगले हफ़्ते रिलीज़ होने वाली फ़िल्म “शादी में ज़रूर आना” में भी उन्होंने एक किरदार किया है. उनके फ़िल्म और थिएटर के सफ़र पर भारत दुनिया की ओर से प्रियंका शर्मा ने उनसे फ़ोन पर बात की. इस बातचीत का एक भाग हम अभी साझा कर रहे हैं, दूसरा भाग हम 9 नवम्बर को साझा करेंगे.
प्रियंका: पहला सवाल मेरा यह है कि आप एक एक्टर हैं, लेकिनआपको एक्टिंग का शौक़ कब लगा और कैसे लगा?
महेश देवा: देखिये, जब मैं थिएटर में जब से आया हूँ तो बचपन में हमलोगों ने क्या किया कि बचपन में हम लोग के स्कूल में नाटक हुआ करते थे एनुअल फंक्शन में..लाइफ में पहली बार क्लास 6 में एक नाटक हुआ भाई-भाई के बंटवारे पर, उससे एक मन में विचार आया कि कभी नाटक हम करेंगे..तो बहुत गैप हो गया इंटर तक..और जिस कॉलेज में पढता था वहाँ पर भी नाटक-ड्रामा की एक्टिविटीज़ नहीं होती थीं.. यूनिवर्सिटी में जब आया तो यूनिवर्सिटी में वो दौर मिला..और वहां पर फिर NSS में ..यूथ कल्चर..हम लोग कम्युनिटी ग्रुप बना करके नाटक किया करते थे.. और उसके बाद एक सिलसिला निकल पड़ा.. फिर हमारी स्टार्टिंग यायावर से हुई और यायावर से हमलोगों ने थिएटर स्टार्ट किया..फिर तमाम नाटकों का मंचन, हिन्दुस्तान के तमाम शहरों में नाटकों का मंचन किया..पटना में, मुंबई में, जयपुर में, बंगाल में.. लखनऊ में तो बहुत सारे नाटकों का मंचन किया..नुक्कड़ नाटक भी
प्रियंका: तो आपने यहीं से ये सोच लिया कि आपको एक्टिंग को प्रोफेशन बनाना है?
महेश देवा: एक्टिंग को प्रोफेशन बनाने का कुछ क्लियर नहीं था, कोई क्लियर विज़न नहीं था..एक होता है कि हॉबी थी कि हमें एज़ एक्टर कुछ बनना है.. कुछ एंटरटेन करना है..तो मिमिक्री आर्टिस्ट था तो यूनिवर्सिटी में बहुत सारे आर्टिस्ट की मिमिक्री किया करता था. धीरे धीरे चीज़ें बदलीं, बहुत सारे थिएटर के हिन्दुस्तान के एनएसडी के बड़े बड़े डायरेक्टर के साथ वर्कशॉप की.. देवेन्द्र राजन, प्रोफ़ राजेन्द्र कालिया, अमिताभ श्रीवास्तव जी, रोबिन दास और तमाम ऐसे डायरेक्टर के साथ वर्कशॉप की तो उसके बाद पता चला कि थिएटर में गंभीरता बहुत ज़रूरी है और डिसिप्लिन.. थिएटर में एक डिसिप्लिन होता है…जैसे आजकल के यूथ में वो डिसिप्लिन नहीं है तो उसको लेकर के बहुत सारे काम किये….पहले विज़न नहीं था फिर धीरे धीरे थिएटर करते करते विज़न बन गया…और जब देखा कुछ नहीं है तो सोचा इसी में हम अपने आपको इसटैब्लिश करें, तो पिछले 17 सालों से मैं रेगुलर थिएटर कर रहा हूँ.
प्रियंका: हमने सुना है कि आप लखनऊ में एक एक्टिंग स्कूल भी चलाते हैं. तो किस तरह आपने इसे शुरू किया है और कब शुरू किया है ?
महेश देवा: हमने इसे 2004 दिसम्बर में एक संस्था बनायी मदर सेवा संस्थान और मदर सेवा संस्थान का मक़सद था कि कला संस्कृतिक, साहित्य के माध्यम से यूथ को अवेयर करना और महिलाओं के मुद्दों को सामने लाना चाहे वो अन्य भ्रूण हत्या हो, डोमेस्टिक वायलेंस जैसे किस्से हों या लड़कियों के या बच्चों के इश्यूज हों.. ..तो उस संस्था को लेकर हमने काम किया और इन मुद्दों को नाटक में लेकर आये..और धीरे धीरे बच्चों से मेरा इन्वोल्वेमेंट ज़्यादा हुआ और चिल्ड्रेन स्ट्रीट थिएटर मैं करने लगा. चिल्ड्रेन स्ट्रीट थिएटर करते करते आया कि 2013 में हमने इसटैब्लिश किया “चबूतरा थिएटर पाठशाला”, चबूतरा थिएटर पाठशाला की जो नीवं हमने रखी थी ये उन बच्चों के लिए थी जो समाज के उपेक्षित बच्चे हैं जो बिलकुल ग़रीब हैं, ग़रीबी रेखा के नीचे हैं.. वो पढ़ाई तो कर रहे हैं सरकारी योजनाओं की वजह से उन्हें ये तो मिल जाता है मिड-डे माल वग़ैरा…. लेकिन उनके अन्दर जो आर्ट है वो कैसे निखरेगा तो उसके लिए हमलोगों ने चबूतरा थिएटर पाठशाला की नींव रखी और लखनऊ के कम से कम 7 स्थानों पर हमने चलाया और 400 से ज़्यादा बच्चों को प्रशिक्षित किया, अभिनय से नृत्य से, गायन से, लिटरेचर से..और उसके बाद उनको हम मंच पर लाते थे, चबूतरा थिएटर फेस्टिवल के नाम से…
प्रियंका: तो एक वक़्त पर कितने बच्चों की क्लास रहती है आपके पास?
महेश देवा: नहीं वो..जितने बच्चे आ जाएँ..जैसे हम लोग खुले में करते हैं, पेड़ की छाँव के नीचे किसी चबूतरे पर.. कहीं कहीं चबूतरा नहीं होता ..लेकिन उसका कांसेप्ट ही यही था कि कहीं कोई चबूतरा मिल जाए दस बच्चे बैठ जाएँ..कुछ एक्टिविटी हो सके… अब घरों में तो हमको कोई स्पेस मिल नहीं पाता है नाटक वाटक करने के लिए क्यूंकि ऐसे बच्चे हैं जहां स्पेस नहीं मिल पाता.. तो उसमें तो हमें कोई स्पेस देगा नहीं तो अब इसलिए हमने सोचा कि ओपन कहीं भी स्पेस हमको मिल जाता है तो वहाँ पर हमलोग नाटक स्टार्ट कर दिए.. ढोलक वाले आ गए, हारमोनियम आ गया, गाना बच्चों को सिखाना स्टार्ट कर दिया.. हमने ड्रामा का आर्ट सिखाना शुरू कर दिया, एक्टिविटी उनके अन्दर हमने डालना आरम्भ कर दिया…और हमारी एक एक ब्रांच में 35-35, 50-50, 100-100 बच्चे भी आ जाया करते थे, अब सौ बच्चों को हम फाइन आर्ट सिखा रहे हैं, हमने रेखांकन, स्केचिंग करना सिखा रहे हैं कि कैसे रेखाएं खींची जाती हैं…ड्राइंग सिखाते हैं.